मण्डन मिश्र को इतिहास एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता हैं जिन्होंने ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में तगड़ी टक्कर दी थी | उनकी पत्नी भारती ने तो शंकराचार्य शास्त्रार्थ में को हरा भी दिया था |
मण्डन मिश्र का इतिहास
मण्डन मिश्र गृहस्थ आश्रम का पालन करने वाले मिथिला के प्रकाण्ड विद्वान थे |
कुमारिल भट्ट के इस शिष्य थे के बारे में ऐसा कहा जाता है की उनके आश्रम की सारिकाएँ भी शुद्ध संस्कृत में वार्तालाप करती थी |
मूलतः एक मैथिल ब्राह्मण में जन्मे मण्डन मिश्र सहरसा जिले के महेशि के रहने वाले थे |
इनके द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ ब्रहमसिद्धि है|मण्डन मिश्र की कृतियाँ में निधि विवेक , भावना विवेक ,विभ्रम विवेक , मीमांसा सुत्रानुमनी , स्फोटसिद्धि , ब्रम्हसिद्धि आदि प्रसिद्द है |मीमांसा के प्रसिद्ध विद्वान् मण्डन मिश्र को व्याकरण की प्रसिद्ध पुस्तक “स्फोटसिद्धि” के लेखन का श्रेय भी दिया जाता है |
शंकराचार्य से शास्त्रार्थ
ऐसा कहा जाता है की शंकराचार्य मंडन मिश्र से उम्र में छोटे थे |७वीं शताब्दी में जब आदि शंकराचार्य भारत भ्रमण पर निकल कर शास्त्रार्थ द्वारा हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना करने लगे तब उनका आगमन सहरसा जिले के महिषी ग्राम में हुआ जो की मिथिला प्रान्त में पड़ता था |
शंकराचार्य ने मंडन मिश्र से यहीं शास्त्रार्थ किया था |
शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र शंकराचार्य से हार गए थे | शास्त्रार्थ के शर्त के अनुसार मण्डन मिश्र ने शंकराचार्य को अपना गुरु मानना पड़ा था |
शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को अपने धर्म में शामिल कर लिया और उनका नया नाम सुरेशाचार्य रखा |
पनिहारियों की विद्वता ने किया था शंकराचार्य को भी आश्चर्यचकित
ऐसा कहा जाता है कि जब शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की विद्वता के बार में सूना तो उनके मन में मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने की इच्छा हुई |
जब वे महेशि नगर पहुंचे तो एक कुआं से जल भरकर मार्ग में जाती हुई पनिहारियों से मण्डन मिश्र का घर पूछने लगे |
जब पनिहारियों को यह मालुम हुआ कि शंकराचार्य मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करने आये हैं , तब उसने ग्राम जलाशय का वर्णन करने के लिए शंकराचार्य से आग्रह किया |
शंकराचार्य ने जलाशय का वर्णन संस्कृत पद्द द्वारा निम्न रूप से किया –
“ रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकज श्री: | हत्यं विचिन्तयति कोष गते द्विरेफे , हा | इंत | ? हंत | ?? नलिनी गज उज्जहा ||”
शंकराचार्य का उक्त पद्द सुनकर पनिहारिन ने कहा
“आचार्य जी आप तो लट लकार के प्रयोग के प्रयोग पर विशेष बल देते हैं |
पनिहारिन के संस्कृत ज्ञान को देखकर शंकराचार्य स्तब्ध हो गए | शंकराचार्य ने पुनः मण्डन मिश्र के निवास स्थान के बारे में पूछा |
तब उन महिलाओं ने कहा-
“स्वतः परमानं कीरांगना यत्र गिरो गिरन्ति |
द्वारस्थ नीडान्तरसनिरुद्धा जानी हितनमण्डन मिश्र तौकः |
फल प्रद कर्म्मफल प्रोदउन्जः कीरांगना यत्र गिर गिरन्ति |
द्वारस्थ नीडान्तर सतिबद्धा जानी हितान्मंडन मिश्र तौकः |
जगद ध्रु वंश्यां जगतध्रुवं स्यात्किराडग्गना यत्र गिरं गिरन्ति |
शिष्यैर संख्यैरपि गीयमानं अवेहितनमण्डनमिश्र तौकः |
इसका मूलतः अर्थ यह है की , “जहां पर शुक , सारिका , अध्यात्मिक विषय में शास्त्रार्थ करते हों वही घर है , मिश्र जी वहीं रहते हैं “
उसके पश्चात बस्ती में घूमते जहां तोता मैना शास्त्रार्थ कर रहे थे , वहीँ पहुंचकर रुक जाते हैं |
मण्डन मिश्र यथोचित नमस्कार कर , सत्कार दे कुशल आदि तथा आने का कारण पूछते हैं |
स्वामी शंकराचार्य अपना परिचय देते हुए कहते हैं मैं आपसे शास्त्रार्थ करने आया हूँ |
भारती से शास्त्रार्थ
दुसरे दिन एक सभा आयोजित की गयी |
शास्त्रार्थ में दोनों की मध्यस्था हेतु विद्वानों के परामर्श से मिश्र की पत्नी सरस्वती बनायी जिनका वास्तविक नाम भारती था |
दोनों का शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ , विषय था ज्ञान वाद और कर्म वाद | लगातार प्रश्नोत्तर होते रहे |
अंत में शंकराचार्य की जीत हुई | तब सरस्वती देवी ने कहा कि स्वामी जी ! अभी मिश्र जी नहीं हारे हैं | उनका दाहिना अंग हार गया है , अभी वामा अंग शेष है | जब तक आप शास्त्रार्थ में मुझे नहीं हरा देते तब तक आप की प्रश्नोत्तर होते रहे |
अंत में मिश्र की पत्नी ने प्रश्नोत्तर स्वामी से प्रश्न किया कि काम की बाह्य और अन्तरंग कला कितनी है |
शंकराचार्य पूर्ण ब्रम्हचारी थे | इस कला की उन्हें जानकारी नहीं थी | अतः वे उत्तर नहीं दे सके और कुछ समय मौन रह कर कहने लगे कि देवी जी मैं यह नहीं जानता हूँ |
सरस्वती जी को विजय श्री मिली और स्वामी जी नतमस्तक होकर चले गए |